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तुम राष्ट्र के पांडव हो !

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तुम औरो की भांति चुन सकते थे श्वेत तुमने चुना रक्त रंजीत पताका! तुम्हरे पास भी होठ थे चुम सकते थे कोमल अधरों को रगड़ लिए होठ तुमने गाँव की माटी में सुलगती अंगीठी पर जब घूरा फड़फड़ाती मछली की आँखों को भांग हुआ तप  ब्रह्मा का जब चूमा तुमने श्रम बिन्दुओ को हलचल हुई छीर  सागर में काटा जो तुमने भुजंग को मचल उठा शिव का आसन कांपी  धरती, कांपा  भारत  जल जब लाल पताका चरम पर तुम्ही जप, तुम्ही अन्ना  तुम्हारा भगत, तुम्हारा गांधी  ये राष्ट्र का गौरव है की तुम राष्ट्र के पांडव हो !
we chahte hai...!! उन्हें शौख है चांदमारी का, घर में बैठ के सवारी का, वे चाहते है चिरंजीव रहना, सहम कर  सहना और सजीव रहना, वे चाहते है तोडना चट्टान, डर लगता है कंचों के साथ, वे चाहते है  बनना चण्ड, पर महकते है भय का दुर्गंध, वे चाहते है लगाना चपत, उंगलिया टूटी है शत-प्रतिशत, वे चाहते है बनना चरित्रवान, तीन चरित्रों को एक साथ सान, वे चाहते है करना चमत्कार, कर नहीं सकते स्व-सत्कार, वे चाहते है पीना चरणामृत, भला मृत कही  पीता अमृत।
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Dedicating this poem to all workers, maids who help us in living our day to day life. they makes our life smooth and some times some 'quityaas' harass/torture them or use them for their own profit! हम कितने निर्लज है, अपूर्ण,कठोर है, अह स्वार्थ से ग्रसित है, कैसे वो निवाला जाता है पेट में, बिना दिमाग को झकझोरे, हम क्यू नहीं सोचते , उन फूटी किस्मतो के धनी, निर्धनों के  बारे में, हम कितने निर्लज है। निर्लज्जता की भी पलके झुक जाती है, जब हम उन अक्षम-असहयो के, पैसे पर सोते है; जो घर-घर जाकर जूठे बर्तन धोकर, इकठे  किये गए होते है। हम निर्लज्जता की प्रकास्ठा पर आसीन है। निर्लज्जता खुश है। एवं वे, बेबस,बेचारे,बेघर,बेसहारे बेसुध है। हम क्यू नहीं सोचते हम कितने निर्लज है?                                                   - shivam shahi