रात सावन भी आये
रात सावन भी आये,
बदरा भी बरसे भींगे ना मन, ना ही अलक
सुरमई आँखों की रह गई कसक
अंधी अंधेरी आहटों से बूंदें भी रोई
बूंदें जमीं पर गिरते, लगी खिलन े
जैसे झुक कर चूमा हो
तेरे कानों को तेरे
अधरों को, हाथों को, गालों को
फिर सरकती हुई बूंदें लगी तैरने
जैसे चंचल हुआ नीर,
मादकता के गलियारों मे फिर स्थिर हुई बूंदें मन-कलश मे ।
-शिवम् शाही
Date: 26 June 2015
Comments
Post a Comment